सोमवार, 28 नवंबर 2016

संवत बदले - गणेश गंभीर

संवत बदले कवि गणेश गंभीर का हाल ही में प्रकाशित दूसरा नवगीत संग्रह है। शीर्षक संवत बदले सिर्फ कैलेंडर के पन्नों पर दिन, महीने, वर्ष और सदियाँ बदलने का द्योतक नहीं है, संग्रह के गीतों का अध्ययन करते समय यह अनुभूति होती है कि गणेश गंभीर के गीत इस निर्मम, क्रूर, जटिल, कठिन और दुरुह समय में हो रहे हर तरह के बदलाव की सूक्ष्म और गहरी छानबीन और पड़ताल करते हैं। यह बदलाव है मानव-मन का, समाज का, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक परिस्थितियों का। ये गीत राजा से प्रजा तक के, राजपथ से जनपथ तक के बदलते समीकरणों, चँहु ओर व्याप्त हताशा, निराशा, अवसाद, और अवसरवादिता के प्रति एक आक्रोश और खीज को स्वर देते हैं। किंतु अपने समय के कठिन सच के विरुद्ध सिर्फ आक्रोश दर्ज करना ही कविता नहीं होती।

एक अच्छी कविता वह है जिसमें एक बेहतर समाज, वातावरण और परिस्थितियों को निर्मित करने की बैचेनी भी हो। गणेश गंभीर के गीतों में यह बैचेनी नजर आती है और इसी कारण उनके गीत अपने से लगते हैं उनके गीतों में पाठक स्वयं को पढ़ता है, अपने परिवेश से रूबरू होता है और अपने समय से साक्षात्कार करता है।

गणेश गंभीर के गीतों की भाषा सरल, सहज, संप्रेषणीय, पारदर्शी, संवेदनशील और लयात्मक है, साथ ही साथ गीतों में बिम्ब, प्रतीक, सांकेतिकता का कुशल प्रयोग हुआ है। उनके गीत कहीं भी दुरुह नहीं प्रतीत होते बल्कि अपने विशिष्ट, सहज, संवादधर्मी एवं लयात्मक प्रतीकों के माध्यम से पाठक के साथ एक आंतरिक व सघन आत्मीयता कायम कर लेते हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त बिम्ब जटिल एवं क्लिष्ट मनोभावों को सरल करके प्रस्तुत करने में सक्षम होते हैं। अतीत और वर्तमान पर कई कोणों से संवाद करते यह गीत जीवन के यथार्थ, खुरदुरेपन, संघर्ष, विसंगतियों, विद्रूपताओं और जटिलताओं को व्यक्त करने के लिये कई जगह कोमल पदावलियों और नाजुक शब्दों के प्रयोग के बजाय तल्ख और खुरदुरी भाषा का प्रयोग भी करते हैं। परंतु ऐसा करते हुए भी उनके गीत कहीं लय से दूर नहीं होते....कहीं खटकते नहीं। संदर्भ और प्रसंग के अनुसार अनेकानेक मिथकों का और मुहावरों का सहारा लेते हुए वे सार्थक एवं विराट भाव-बोध लिये हुए अपनी एक अलग भाषा निर्मित करते हैं।

“बूढ़ी जादूगरनी जब छड़ी हिलाती है
यह आँधी आती है।
हिंसक हो जाती है
ठंडाती चिंगारी अग्निकुंड बनती है
पल भर में फुलवारी लुटी हुई औरत-सी,
बस्ती चिल्लाती है।“
* * * * *
जिसने चाहा किया उसी ने
पार नदी को
पूजा-उत्सव
सभी व्यवस्था पहले जैसी
दान-दक्षिणा संत-भक्त
गणिकायें-विदुषी
युगों-युगों से रहे निरंतर
तार नदी को
* * *
अजब हाल है झूठ इन दिनों सच की करता देखभाल है। कुछ ग्रह बाहर निकल रहे
अपनी कक्षाओं से दिग्पालों की चीखें आती दसों दिशाओं से पृथ्वी मंगल जैसी बिल्कुल लाल-लाल है।
* * *
मुँह से निकले खबर बन गये हत्यारे जुमले।
कभी पाँन की पीक कभी व्हिस्की में रहते हैं घनी मूँछ का संरक्षण पा जमकर हँसते हैं गन्दे नाले हो जाते हैं और अधिक गंदले। गणेश गंभीर अपने गीतों में आधुनिक जीवन की क्रूर विडम्बनाओं, विसंगतियों, अमानवीयता, त्रासदियों को व्यक्त करते हैं एवं लगातार उनके साथ टकराते हैं। उनके गीतों में अपने समय, समाज, समसामयिक युगबोध, मध्यमवर्गीय निराशा बोध, ढुलमुलपन, यथास्थितिवाद को परखने वाली दृष्टि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वे वक्त को सबसे तेज और घातक हथियार मानते हैं और बदलते वक्त की अनुगूँज सुनने का प्रयास करते हैं। उन्हें वर्तमान में व्याप्त अंधकार, सामाजिक अंतर्विरोधो, राजनीतिक स्वार्थपरकता, अवसरवादिता और अमानवीय नृशंसता की पहचान है मगर उनके गीत फिर भी निराशा के गीत नहीं हैं। अंधकार के दरवाजे पर उजालों की आहट भी उन्हें सुनाई देती है और यह आशा और जीजिविषा उनके गीतों में भी दिखाई देती है। इस तरह उनके गीत अपनी संवेदनशील भाषा के माध्यम से अपनी दुनिया से संवाद साधते हैं और चोट, चीख, आँसू, आहों खून-पसीने, भय, असुरक्षा, थकन और अवसाद से बाहर निकलकर जीवनमूल्यों की एक संवेदनशील झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

“जब चाहे इतिहास बदल दे जब चाहे भूगोल समय इन दिनों बोल रहा है काफी ऊँचे बोल। कमरे जितने हैं अतीत के / भरे उजालों से
बन्द कर दिया गया उन्हें / तर्कों के तालों से सोच रहा हूँ आगे बढ़ कर मैं दूँ इनको खोल।“
* * *
घर में जंगल जंगल में घर सदा रहा है। गतियों में यतियाँ होती हैं/ यतियों में गतियाँ
समय बना लेती है अनुचर कभी-कभी तिथियाँ हर घटना में एक सुअवसर सदा रहा है।
* * *
सुलझी बातें उलझी लगतीं/ उलझी, सुलझी-सुलझी साफ नहीं लगती है मंशा उन्मुख स्थितियों की।
चले जहाँ से वहीं आ गये/ चलना रुकने जैसा ऐसी भूल-भुलैया रचने में
माहिर है पैसा। गूँज रही चूहेदानी में / गुर्राहट बिल्ली की।
* * *
दुविधा से छुटकारा पाऊँ / सोच रहा हूँ। अवसादों की घनी छाँव में/ सोना ठीक नहीं गये दिनों का शोक मनाना / रोना ठीक नहीं दिनचर्याकुछ नयी बनाऊँ / सोच रहा हूँ।

मानव-मन प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति के साथ गहराई से जुड़ा होता है और यही कारण है कि इन विषयों पर गीत लिखते समय कवि मुखर होता है लेकिन गणेश गंभीर के साथ बदलता वक़्त इस तरह गतिमान है कि इन विषयों पर उनकी कलम कम ही चली है, फिर भी संग्रह का एक गीत “हँसी तुम्हारी” सहज ही ध्यान आकर्षित करता है।
”एक हँसी से मौसम बदले/ एक हँसी से दुनिया इसी तरह से हँसो सदा तुम/ मेरी प्यारी गुड़िया। छोटे-छोटे दाँत दूध के/ फूल धान के हैं आज नहीं / आने वाला कल ये किसान के हैं” ( पृ. 71)

गणेश गंभीर के गीत उस पथ पर चलने के लिये दृढ़-प्रतिज्ञ हैं जहाँ सदैव ही नाजुक, सुन्दर और कोमल
लम्हे इंतज़ार नहीं करते बल्कि चोट, चीखें आँसू और आहों भरी यह डगर है, इस राह में सामना है उन मुखौटाधारियों से जो इन दुखद परिस्थितियों के निर्माता हैं। उनके गीत उस सच को उजागर करते हैं जो मधुर आवाजों और रूमानी ध्वनियों के परदे में अक्सर छुप जाते हैं। वे कटिबध हैं, प्रतिबद्ध हैं अपने गीतों के माध्यम से खरी-खरी कहने को।
”कोई संत-फ़कीर नहीं हूँ मैं गणेश गंभीर मेरे गीत दवायें कड़ुवी नहीं दूध या खीर वैष्णव आलोचलक कहते हैं पागल,हठी अघोर। (पृ. 22 )

संग्रह का एक गीत “मीरजापुर” कवि के अपनी जमीन से जुड़ाव और लगाव की फलश्रुति है। दरअसल यह वह चिरपरिचित जमीन है जिसमें हर व्यक्ति अपनी जड़ तलाशता है, जहाँ वह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है और और अपने कर्म में विविध रूपों में चिरपरिचित सुन्दर और भयावह चेहरों की उपस्थिति दर्ज करता है।
”मीरजापुर/ गंगा जी का दखिन टोला। पहले जैसी अब नहीं है / देह पथरीली-पहाड़ी हाँफता है खींचने में ज़िन्दगी की बैल्गाड़ी मीरजापुर / आदिवासी शांत भोला।“

स्वर्णिम और वैभवशाली अतीत की परछाईयाँ अक्सर वर्तमान पर हावी हो जाती हैं, पर गणेश गंभीर के गीतों में ये परछाईयाँ कहीं भी वर्तमान को बौना नहीं करतीं या उस वटवृक्ष की तरह नहीं गदरातीं जिसके साये में वर्तमान का पनपना मुश्किल हो। यही कारण है कि उनके गीतों में पिता, पुरखे सब सहज रूप से उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
”लेके आशीर्वाद पल आये पिता एलबम से फिर निकल आये पिता। दुनियादारी / क्रूर हिंसक है /अनिश्चित जंगलों-सी सिर्फ यादें हैं तुम्हारी / अब सुरक्षित घोंसलों –सी।
तुम्हें सोचूँ/ आत्मबल आये पिता।

हम उस समय में जी रहे हैं जहाँ मानवीय संवेदनओं का क्षय और हनन होता जा रहा है। सर्वत्र अराजकता छायी हुई है। उदारीकरण, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद, व्यवसायीकरण, औद्योगिकी, और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के चलते हिन्दी कविता में मर्मस्पर्षिता का अभाव पाया जाता है। ऐसे समय में लिखना, सृजन कर्म करना एक कठिन कार्य है। समकालीन हिन्दी काव्य परिदृश्य हिन्दी काव्य प्रकृति और परम्परा के अनुकूल नहीं है। समकालीन हिन्दी कविता में आयात प्रेम इतना अधिक बढ़ चुका है कि यूरोपियन काव्य रुचियों से संचालित हिन्दी के मदमस्त आलोचलक एक पूरी की पूरी विधा को यह कहकर ख़ारिज करते हैं कि जीवन की अत्यंत जटिल अनुभूतियों को गीत जैसी कोमल विधा में व्यक्त कर पाना नामुमकिन है। ऐसे दमघोंटूँ वातावरण् में भी गणेश गंभीर पूरे साहस के साथ नवगीत का न सिर्फ परचम लहराते हैं बल्कि संग्रह की आत्मिका में भी नवगीत का पक्ष लेते हुए दो टूक ....कहते हैं-
“ गीत के बारे में बात करते समय वर्तमान आलोचक यदि उसके पक्ष में बोलेंगे तो ठोस, पारम्परिक काव्य शास्त्री हो जायेंगे और यदि विपक्ष में बोलेंगे तो ‘इनकाउंटर’ और ‘न्यूयार्कर’ की शरण में जायेंगे। नवगीत जो गीतों का नया रूप है, नयी तरह से शिक्षित-दीक्षित है, उनके लिये अस्पृश्य ही है। यह सब नवगीतों के विरोध में जितना है उससे कहीं ज्यादा इन आलोचकों के विरोध में है क्योंकि ये आलोचक जिन कबीर, सूर, तुलसी, मीरा और निराला को हिन्दी कविता का मानक मानते हैं वे वस्तुत: गीतकार ही थे।

समय इन दिनों, हवा हत्यारी, नया साल, संवत बदले,सदमे में बस्ती, शब्द, नहीं लिखूँगा गीत, सोच रहा हूँ, नदी, हवा अपिरिचित, सारा वैभव जन्मा, साधो जूठा भात न खाओ के साथ-साथ संग्रह के लगभग सभी गीत पठनीय हैं। इस संग्रहणीय संग्रह के लिये कवि को शुभकामनाएँ....साधुवाद
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गीत- नवगीत संग्रह - संवत बदले, रचनाकार-  गणेश गंभीर, प्रकाशक-  अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- २०० रुपये, पृष्ठ- ११२ , समीक्षा- मालिनी गौतम।

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