सोमवार, 30 नवंबर 2015

सुबह की अँगूठी- अश्विनीकुमार विष्णु

वैश्वीकरण से परिवर्तित समाज में समय की रफ्तार से कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करता इन्साँ नित नई कठिनाइयों से जूझता ज़िम्मेदारियों को ढो-भर रहा है। उसे थोड़े-से सुकून की ज़रुरत है, घड़ी-दो-घड़ी अपने मन में झाँक भावों को ठीक-से जानने-समझने की दरकार है, बच्चों में घुल-मिलकर अपने बचपन को फिर से जी लेने की चाह है, तो प्रकृति की छाँव में क्षण-भर ठहर ताज़ादम हो लेने की प्यास है। इन्हीं सब भावों के ताने-बाने से बुनी, रसिक पाठक के अंतर्मन को मथ देने में सक्षम कृति ‘सुबह की अँगूठी’ अपने आप में अनूठी है।

प्रकृति की स्वरलहरियों से युक्त शब्द-सरिता को, परम्पराप्रियता, निश्छलता, कर्तव्यबोध, व प्रेम का आधान दे अश्विनी कुमार विष्णु ने अपने नवगीत संग्रह ‘सुबह की अँगूठी’ में प्रवाहित किया है। भाग-दौड़, आपाधापी, नग्न स्वार्थ में डूबे इस समय में इस विश्वास के साथ कि –
बच्चों के हाथों में जितनी एक बाँसुरी
बँजराते खेतों में बथुए की पाँखुरी

इतना भी गीत
अगर बचा रहे बहुत है

यह सच है कि वर्तमान समय में कवि व काव्य की प्रासंगिकता को बनाए रखना कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। ऐसे में शब्दशक्ति के प्रति आस्थावान रहते हुए काव्य-सर्जना करना निश्चय ही अभिनन्दनीय है। कवि के अनुसार यह जटिल समय है, जिसमें अनहोनी को टालना संभव नहीं है। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि हमें अपने प्रयासों को स्थगित कर देना चाहिए और दौर की भयावहता के सामने घुटने टेक देने चाहिएँ। प्रत्येक विसंगति के प्रति स्वयं को जागृत रखते हुए हमें निर्मम समय का अखंडित आत्मविश्वास के साथ सामना करना होगा। आशा, विश्वास, आस्था जीवन को गति देते हैं; साथ ही विषम चुनौतियों को ललकारने का साहस भी, अतः कवि का आग्रह है-
विचलन की राह में खड़े गहरे प्रतिरोध की तरह
धरती के हितों से जुड़े अंतिम अनुरोध की तरह
जागते रहो

सेतुबंध के समय गिलहरी की थोड़ी-सी लगन और मेहनत का भी बहुत महत्व था तभी तो श्रीराम ने उसे स्नेहपूर्ण स्पर्श से विशिष्ट बना दिया था। अपेक्षित यही है कि समाज में जिससे भी जितना कुछ सकारात्मक हो सके करते रहना चाहिए क्योंकि –
चोंच-चोंच तिनकों में
थोड़ा-सा वन
ख़ूब-ख़ूब बातों में
थोड़ा-सा मन
बहुत बड़ी बात है

थोड़े-से को बहुत मानने वाले विष्णु जी का आशावाद दुर्दम्य है, जो विजयपर्व की दिशा को प्रशस्त करता प्रकाशस्तंभ है-
बाधाएँ दलने को
बस आगे बढ़ता चल
ओ पंथी जीवन के

व्यवधानों की फ़िक्र न करते हुए निरंतर अग्रसर रहने का संकल्प लेकर जीना ही इस जन्म की सार्थकता है, इसमें संदेह नहीं। हमारी संस्कृति का वैशिष्ट्य यही है कि न सिर्फ़ ऋषि-मुनि अपितु हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन को अमूल्य एवं अर्थपूर्ण बनाए रखने के लिए शाश्वत मूल्य निर्धारित किए हैं। निस्संदेह वर्तमान युग तमाम निजी विशिष्टताओं को समेटे है, किन्तु नई पीढ़ी द्वारा पुरखों की स्थापित मान्यताओं के प्रति अवहेलना की प्रवृत्ति कवि की चिंता का मूल है। नए दौर में खोती जा रही सहृदयता, व सांस्कृतिक अवमूल्यन परम्पराप्रिय कवि को क्षुब्ध करता है –
पर्व-से उल्लास में पीढ़ी
नई ख़ुश है
पर चमक धुँधला गई है
कहीं तो कुछ है

बुझ रही हैं प्रार्थनाएँ
पुराने घर में

यह प्रार्थनाओं का बुझना निकट-भविष्य में घटित होने जा रही अनहोनी का पूर्वाभास ही तो है, तभी तो कवि ने हमें हमारी सामर्थ्य का स्मरण दिलाते हुए कहा है –
मत भुलाओ देवताओं के
हो सदा ही से दुलारे तुम
चाहे जो अवतार ले ईश्वर
हो उसे ख़ुद से भी प्यारे तुम

दे झकोले युग-
नदी उफनें भँवर फिर भी
दीप जलने दो

प्रकृति से सन्निकटता विष्णु जी की ख़ासियत है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार प्रकृतिप्रिय व्यक्ति सादगी का उपासक होता है। निसर्ग के अनाविल सौन्दर्य में रमे रचनाकार विष्णु के सन्दर्भ में यह कथन सही अर्थों में खरा उतरता है। सुघड़-सुगन्धित, पुष्प-पल्लवित पेड़-पौधों से लेकर, धूप-चाँदनी की ज्योति के संकेतों पर गाते-गुनगुनाते मधुर कंठ वाले पक्षियों की चित्त-हर्षदायक उपस्थिति ने उनके काव्य को माधुर्य से परिपूरित किया है। पीपल पर उतरते प्रवासी पक्षी को देखकर उनका मन उस असीम आनंद से आप्लावित हो जाता है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती-
उतरा है पीपल पर पहला प्रवासी
आज पुनमासी है, आज पूर्णमासी

नई कोंपलों की झलक पहने आई
सरोवर ने की धूप की मुँह दिखाई
सिंगारों सजे रूप सँवरी दिशाएँ
धरा से गगन तक मिलन की जुन्हाई

कमी ही नहीं कुछ कहीं भी ज़रा-सी
आज पुनमासी है, आज पूर्णमासी

किसी पंछी को देखकर आनन्द-अतिरेक में इस सीमा तक लीन हो जाने के उदाहरण साहित्य में विरले ही उपलब्ध हैं। कवि का पक्षियों से प्रेम अतुलनीय है। इस दृष्टि बच्चों के खेलगीत ‘सारस-सारस नाच दिखा’ को आधार बनाकर लिखा गया गीत अद्भुत है-
सारस-सारस नाच दिखा
सारस-सारस नाच दिखा

तू जब-जब नाचे खेतों में
धान उमड़ते हैं
मणियों-सी हँसती रातों में
गान उमड़ते हैं
तेरे बोलों में बसता सबको
वो साँच दिखा
इस गीत के सन्दर्भ में कवि ने स्वयं लिखा है “ कृषि की तकनीक में आए बदलाव के साथ ही दिन-प्रतिदिन पक्षियों के प्रति मनुष्य का असंवेदनशील और स्वार्थपूर्ण रवैया विगत दशकों में बहुत घातक साबित हुआ है...पंछियों के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण अत्यधिक उदार, प्रेम-सद्भाव भरा और संवेदनशील हो, इस आग्रह के साथ मैंने यह गीत-रचना की है।”

प्राकृतिक परिवर्तनों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति कवि की अपनी शैली है। उसमें हृदय की लय है, पाण्डित्य की बोझिलता नहीं। प्रतीकात्मकता है तो इतनी सुग्राह्य कि पाठक का रसभंग न हो। जैसे कि ‘ रात की गीली हथेली ने ‘ गीत में ‘निर्झर’ मन में उभरे आह्लाद को व्यक्त करते हैं तो ‘आचमन की ब्राह्मघड़ियाँ’ व्यर्थ बीते जा रहे जीवन-क्षणों के महत्व को रेखांकित करती हैं –
रात की गीली हथेली ने
उदासी पोंछ डाली है भुवन की
फूल से उसके कपोलों में
लुनाई जागरण की

छलछलाते निर्झरों जैसी
उमंगें कह रही हैं पत्थरों से
मत रहो यूँ थिर बहावों में समय के
मत गँवाओ ज़िन्दगी के क्षण
कि ये हैं प्रार्थनाओं के
कि ये हैं ब्राह्मघड़ियाँ आचमन की
प्रस्तुत गीत के मर्म को परिलक्षित करते हुए यशस्वी कृतिकार शिखा वार्ष्णेय कहती हैं, “लुनाई जागरण की...मन करता है यह गीत कभी ख़त्म ही न हो...सुबह की कुनकुनी धूप-सा, आशाओं के प्रकाश-सा नवगीत।”

समय की नब्ज़ को पहचानकर विचारप्रस्तुति समयचेता कवि के युगबोध की परिचायक होती है। नवगीत का मूल चरित्र यही है कि उसने युग की विडम्बनाओं-विसंगतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज़ किया है। शासन की कुव्यवस्था ने वर्तमान समाज को बुरी तरह विघटित व विश्रृंखलित किया है। हर पल अपने हितसाधन में लगी राजनैतिक उठापटक से हर कोई संत्रस्त है, सब तरफ़ नैराश्य का माहौल है। भ्रष्ट तंत्र के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ उठाए तो उसे कुचलकर रख देने वाले सारे साधन सत्ता के पास हैं। आम आदमी की आवाज़ को कुचल डालनेवाली इस व्यवस्था पर कवि ने कड़ा प्रहार किया है –
भीड़ में मारा गया
कुंजर कि इन्साँ
कौन जाने

तथ्य के पर छाँटने की
कला में निष्णात
भ्रष्ट आखेटक-व्यवस्था
कुछ न होगा ज्ञात

जन-सामान्य को प्रतिक्षण असुरक्षितता का अहसास करती दुष्ट प्रवृत्ति के प्रादुर्भाव को वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
मस्त चौकड़ी भरते मारीच अंचल में
पत्तों की कुटिए हैं असुरक्षित जंगल में
जन-गण तो जीता है नित नए अमंगल में
छिन रही है उसके तो
पाँव तले की जमीन
कृति में समाविष्ट ऐसे कई गीत कवि के युगबोध की बानगी हैं।

सौन्दर्यबोध से निःसृत रसात्मक अनुभूति प्रेम की आधारशिला है। इस अर्थ में प्रस्तुत संग्रह के प्रेमगीत अश्विनी कुमार को प्रेम का कवि बना देते हैं। प्रकृति के सामीप्य ने उनके प्रेम को मासूम और निर्व्याज बनाया है। यह प्रेम उनके काव्य में पर्णपतित दवबिंदु की भाँति आरस्पानी कोमलता को लिए प्रकट हुआ है, जिसके छूने-भर से भावों के बिखराव का संशय उत्पन्न हो जाता है। जीवन के संघर्षों में फँसे रहकर भी उनके प्रेम का रँग फीका नहीं पड़ा है, बल्कि और भी शिद्दत से उभरकर आया है। सृष्टि-सौन्दर्य को परख अपनी रचनाओं में ढालने की अगाध सामर्थ्य उनमें है , तभी तो अपनी नायिका को रूप की पहली पहेली मानते हुए ‘नीलांबरी’, ‘पीतांबरी’, ‘अरुणाम्बरी’ के संबोधन वे दे पाते हैं –
रूप की पहली पहेली तुम
धूप की सच्ची सहेली तुम

खुल गए देखा तुम्हें तो
पंख मन के
महमहाए सुरभि-वन
सपने गगन के
रूप की श्रृंगार-भाषा तुम
धूप की कचनार-आशा तुम
पीतांबरी तुम
हाँ सुंदरी तुम
गहन प्रेम की विविधवर्णी भंगिमाओं की अनेक मनभावन छवियाँ इस संग्रह में दृष्टिगोचर होती हैं।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि व्यक्ति को प्रकृति से समरस कराने में समर्थ नवगीत संग्रह ‘सुबह की अँगूठी’ अश्विनी कुमार विष्णु की नवरूपविधायिनी भावाभिव्यक्ति का सलोना दर्पण है। उपभोक्तावाद के कारण बाज़ारू हुए रिश्तों की कृत्रिमता उनका मन दुखाती है, टूटती परम्पराएँ उनके हृदय में टीसती हैं, मान्यताओं के दरकने से वे व्यथित हैं किन्तु फिर भी निराश हर्गिज़ नहीं हैं। समाज के प्रति दायित्वबोध से सजग प्रेमकवि के रूप में उन्हें यह संग्रह गीतलोक में सफलता से स्थापित करता है। कोमल भावों की कनकनिर्मिती पाठक को आशा-विश्वास के उस उजास में ले जाती है जहाँ उसका अंतर्मन स्वयंप्रकशित हो जाता है और उसकी रगों में प्रेम के रँगों से आलोकित जीवनसंगीत सहज प्रवाहित होने लगता है। कवि की सौन्दर्यप्रसाधिका रचनात्मक शक्ति ने ‘सुबह की अँगूठी’ को पुनः-पुनः पठनीय व संग्रहणीय बना दिया है।
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गीत- नवगीत संग्रह - सुबह की अँगूठी, रचनाकार- अश्विनीकुमार विष्णु, प्रकाशक- हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर। प्रथम संस्करण- २०१३, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ- १०४, समीक्षा- डा. कौमुदी बर्डे ‘क्षीरसागर’, ISBN ९७८-९३-८०९१६-१६-३।

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