रविवार, 10 जुलाई 2016

रिश्ते बने रहें - योगेन्द्र वर्मा व्योम

पीतल-नगरी मुरादाबाद में काव्यमई स्वर्णिम आभा से युक्त चर्चित नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का समकालीन गीत-संग्रह-'रिश्ते बने रहें' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। काव्य-संग्रह- 'इस कोलाहल में' के पश्चात यह आपका प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है, जिसमें यों तो ३५ नवगीत संग्रहीत हैं, किन्तु यही गागर में सागर का आभास देते हैं। संग्रह में शामिल व्योम जी के सारे नवगीतों में भावों का फ़लक, व्योम अर्थात आकाश की भाँति ही विस्तृत और असीम है तथा निशाकालीन आकाश के जगमगाते सितारों की भाँति बिम्ब और उपमाएँ तथा प्रतीक और अलंकार पाठकों को चमत्कृत करते हैं। इनमें कुछ तो नितांत अनछुए प्रतीत होते हैं, जैसे-
अपठनीय हस्ताक्षर जैसे 
कॉलोनी के लोग...  
अथवा-
बिन फोटो के फ्रेम सरीखा 
यहाँ दिखावा है...
या फिर-
जैसे खालीपन कागज़ का 
वैसी अब है माँ... 

ऐसी प्रयोगधर्मी नव्यता लगभग हर नवगीत में है चाहे वह-
उलझी वर्ग-पहेली जैसा 
जीवन का हर पल... 
के रूप में हो अथवा वर्तमान यथार्थ की त्रासदी ओर इंगित करती इन पंक्तियों में-
मोबाइल से बातें तो 
काफी हो जाती हैं 
लेकिन शब्दों की ख़ुशबुएँ 
कहाँ मिल पाती हैं

वैसे सच कहा जाए तो जो श्रोता/पाठक शब्दों की ख़ुशबुओं को महसूस करने की क्षमता रखता होगा, केवल वही ऐसी रचनाओं का रसास्वादन करने में सक्षम हो सकता है। 'मीठापन बोना भूल गए' शीर्षक वाले नवगीत में मानवीय संबंधों में व्याप्त विसंगतियों का चित्रण ग़ज़ल के रूपक के माध्यम से बहुत ही सटीक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। 

सुख सुविधाओं के काफिये, उजली आशाओं के रदीफ़, सुबह-शाम से दो मिसरे और इस ताने बाने में बुनी ग़ज़ल का सामंजस्य वर्तमान सामाजिक परिवेश के साथ समाविष्ट करने का प्रयास सराहनीय है-
जीवन में हम ग़ज़लों जैसा 
होना भूल गए 
शब्दों में लेकिन मीठापन   
बोना भूल गए 
शायद रिश्तों में ग़ज़लियत 
सँजोना भूल गए 

व्योम जी का हर नवगीत कवि के संवेदनशील मन को प्रतिबिम्बित करता है। लगभग सभी रचनाएँ व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों के विघटन को चित्रित करती हैं, लेकिन कथ्य की ताजगी और तद्जनित आत्मानुभूति मन को अंदर तक झकझोर जाती है। माँ-बाप-पुत्र तथा भाई-बहन के मध्य रिश्तों के विघटन को 'मुनिया ने पीहर में आना छोड़ दिया' के माध्यम से बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। विवाहिता मुनिया इसलिए पीहर आने को इच्छुक रहती है ताकि वह अपने स्वच्छंद वातावरण को पुनः जी सके, लेकिन जब वह देखती है कि-
कच्चे धागे के बंधन भी  
पड़े आज ढीले 
चावल ने रोली का साथ 
निभाना छोड़ दिया 

तब पीहर जाने की उसकी इच्छा भी सिसक कर रह जाती है। बड़ी से बड़ी बात को भी किस सादगी के साथ प्रस्तुत किया गया है, यही कवि की रचनाशीलता का प्रमाण है। आम बोलचाल की भाषा के सामने भरी भरकम शब्दावली निर्जीव जान पड़ती है। महानगर की अपसंस्कृति पर लंबे-चौड़े वक्तव्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं लेकिन  वे सभी इन चंद पंक्तियों के सम्मुख बौने ही नहीं महाबौने साबित होंगे-
खुश बहुत होकर सुबह 
कोई मुझे बतला रहा 
बेचकर गेहूँ शहर से 
गाँव वापस आ रहा 
आज हरिया भी नया 
रंगीन टी॰वी॰ ला रहा 
क्या चचा, तुमको पता है?
लोग ऐसा कह रहे 
अब न दिखलाई पड़ेगी 
लाज अपने गाँव में 

शहर की लंबी चौड़ी सड़कों से गाँव की पगडंडियों तक सांस्कृतिक अवमूल्यन का प्रदूषण बड़ी तेज़ी के साथ फैल रहा है क्योंकि जींस-टॉप में नई बहू ने सबको चकित किया है लेकिन संस्कृति के इस आकस्मिक अवमूल्यन को आत्मसात करने में आम जन-मानस सहज नहीं है, उसे तो बस यही लग रहा है कि- धीरे-धीरे सूख रही है तुलसी आँगन में और हरापन जल्द ही लौटेगा। आज राजनीति भी हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है, इससे कैसे अप्रभावित रहा जा सकता है? चुनाव के समय राजनेताओं द्वारा बड़े-बड़े वादे करना, आम जनता को दिवास्वप्न दिखाना और सत्ता में काबिज होकर सब कुछ भूल जाना आम बात है, लेकिन आम आदमी अपने सपने पूरे होने की उम्मीद पाले रखता है और चुनाव आ जाते हैं, फिर उसे मिलते हैं वही वादे वही सपने। एक नवगीत में कवि ने राजनेताओं पर बेहद चुटीला व्यंग्य किया है-

सुना आपने?
राजाजी दौरे पर आएँगे 
सुनहरे स्वप्न दिखाएँगे

जबसे खबर सुनी है 
बुधिया आसमान पर है 
उसकी तेज नज़र 
राजा के हर बयान पर है

सोच रही है 
अच्छे दिन की गठरी लाएँगे  

आज सबसे बड़ा संकट रिश्तों को बचाए रखने का, उन्हें बनाए रखने का है क्योंकि इन्टरनेट के इस युग में हम सैकड़ों हजारों मील दूर बैठे व्यक्ति से तो आत्मीय रूप से जुड़े हुए हैं लेकिन घर के भीतर हमें अकेलापन अच्छा लगता है, रिश्तों की चटखन और रिश्तों में पड़ रहीं दरारें न तो हमें दिखाई देती हैं न सुनाई। इस संग्रह के शीर्षक गीत में कवि एक मीठी उम्मीद के साथ अपनी सद्भावना व्यक्त करते हुए आह्वान करता है-

चलो करें कुछ कोशिश ऐसी 
रिश्ते बने रहें

यही सत्य है, ये जीवन की 
असली पूँजी हैं 
रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन 
हर पल गूँजी हैं 

अपने अपनों से पल भर भी 
ना अनमने रहें 

व्योम जी के इन नवगीतों कि विशेषता है, लयात्मकता और भाषा की सरलता, सहजता। अधिकांश रचनाएँ एक ही छंद में होने के बावजूद भी भावों की ऐसी रसधार हैं जिनमें शब्द मंथर गति से प्रवाहमान हैं। हिन्दी गीत के प्रथम पांक्तेय हस्ताक्षर श्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, श्री महेश्वर तिवारी, डॉ॰ कुँवर बेचैन, एवं श्री मधुकर अष्ठाना जैसे साहित्य-पुरोधाओं का शुभाशीष भी पुस्तक को गरिमा प्रदान करता है, उसका महत्व बढ़ाता है। मुद्रण अच्छा और त्रुटिहीन है। निश्चित रूप से यह समकालीन नवगीत-संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि 'रिश्ते बने रहें' पाठकों के हर वर्ग को संतुष्टि ही प्रदान नहीं करेगा, अपितु नवगीत के प्रति उन्हें और भी सम्मोहित व आशान्वित बनाएगा। 
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गीत- नवगीत संग्रह - रिश्ते बने रहें, रचनाकार-  योगेन्द्र वर्मा व्योम,   गुंजन प्रकाशन, सी-१३०, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद -२४४००१ (उ.प्र.) । प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- २०० रुपये, पृष्ठ- १०४ , समीक्षा- बी.के.वर्मा शैदी, ISBN- 978-93-80753-31-7 ।

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