सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

बूँद-बूँद गंगाजल- भावना तिवारी

गीतों के क्षेत्र में कवयित्री डॉ. भावना तिवारी का नाम अनजाना नहीं है। अपने गीतों के माध्यम से उन्होंने साहित्याकाश में सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबपत्रिकाओं में भी भावना जी के गीत निरन्तर प्रकाशित होते रहते हैं।  सद्यः प्रकाशित गीत-संग्रह ‘बूँद-बूँद गंगाजल’ उनकी पुष्ट लेखनी का ही प्रमाण है। गीत-नवगीत लेखन और प्रस्तुतीकरण में भावना जी का एक अलग ही मिजाज व अंदाज है। जीवन के उन तमाम खट्टे-मीठे पलों को बहुत ही शालीनता के साथ उन्होंने गीतों में सँजोया है, जिनके बिना जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है।

ये गीत सृष्टि के प्राण हैं। गीत लय एवं प्रवाह हैं। हिन्दी साहित्य की सर्वाधिक खूबसूरत विधाओं में गीतों का, कोई सानी नहीं है। गीत सृष्टि के प्राण हैं, तो साहित्य बगैर गीतों के लयविहीन और सौन्दर्यहीन हो जायेगा। दुनिया की कोई भी भाषा हो, उसके साहित्य का सर्वाधिक सबल पक्ष गीत ही हैं। समर्थ गीत जन-जन की धमनियों में अनवरत् अनन्त काल तक प्रवाहित होते हैं। साहित्य की आम-जनमानस में लोकप्रियता का प्रमुख आधार गीत ही होते हैं। कवि की कलम से निकले गीत जनमानस के कण्ठ में रच-बस जाते हैं। ये गीत समाज को सदियों तक प्रेरणा देते हैं और उसका रंजन-अनुरंजन भी करते हैं। आसान नहीं होता इन गीतों का सृजन। हृदय जब वेदना से तरल हो जाता है, मस्तिष्क आंदोलित हो उठता है, धैर्य जवाब दे देता है, साहस अपने चरम पर होता है और लेखनी कठिन साधना करती है, तब गीत का सृजन होता है। गीतकार डॉ. भावना भी स्वीकार करती हैं-

आहत होकर, दृग-कोरों से
स्वप्न विलग रहता है।
अथक साधना अभिलाषा की
व्यर्थ विहग करता है।

अर्थ बदल जाते जब पल में
शब्द सजग जगता है।
तब जाकर जीवन-पृष्ठों पर
गीत नया रचता है।
(शब्द सजग जगता है, पृ. ७४ व ७५)

लयात्मकता गीतों की पहचान होती है और इसके अभाव में गीत कुंद हो जाते हैं। ‘बूँद-बूँद गंगाजल’ के गीतों की एक विशिष्टता यह भी है कि इसके अधिकांश गीतों का प्रवाह बहुत ही तीव्र है, ठीक वैसे ही जैसे माँ गंगा अपने उद्गम स्थल गंगोत्री से आगे की ओर प्रवाहित होती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इन गीतों की रचयिता स्वयं गायन में भी परिपक्व हैं। ऐसे में माँ इरा की कृपा इन गीतों को धारदार भी बनाती है और वेदना के साथ दार्शनिकता भी परिलक्षित होती है-
बुझे चिरागों से मत पूछो
उन्हें चाह क्यों रही भोर की।
मुकुट विजय का बँधा जहाँ से
हार गये क्यों उसी छोर से।
देखा साथ जनम के मिटना
सजने के ही साथ उजड़ना।
(खुशियों को पाने की धुन में, पृ. ९५)

ऐसा भी देखा गया है कि वेदना और व्यक्तिगत अनुभूति के गीतों को पढ़ने के साथ ही कुछ लोगों की दृष्टि सतह तक ही सीमित रह जाती है। ऐसे में पूर्वाग्रह से मुक्त होना पड़ेगा। कई बार जीवन की यथार्थता को रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों से भी समझा जा सकता है। इस स्तर पर जीवन का यथार्थ-बोध स्वतः परिलक्षित होने लगता है-
आज सियन फिर खुलने को है
टूटे बखिये सिलते-सिलते।
सौ पैबंद टँकी है चादर
उससे दूना अंतस् में। (पृ. ५२)

यह जीवन का यथार्थ है और वह मर्म, जिसे अनुभवों से ही जाना जा सकता है। कुछ लोग इन सन्दर्भों को केवल रुदन कहते हैं। ऐसे लोगों को मालूम होना चाहिए कि जीवन का आरम्भ ही रुदन से होता है। आत्मिकता के सामाजिक सरोकार भी होते हैं। भारतीय संस्कृति में दाम्पत्य-जीवन की अपनी ही रोचकता है। आश्रम व्यवस्था में इस गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गृहस्थ आश्रम से ही अन्य आश्रमों का विस्तार और उत्थान सम्भव है। यही कारण है कि इसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ, दोनों कहा गया है। गौतम धर्मसूत्र(९, १) में कहा गया है कि इस आश्रम में पति और पत्नी एक-दूसरे के प्रति सहयुक्त होकर धर्मानुसार व्यवहार करते हैं। ‘बूँद-बूँद गंगाजल’ की कवयित्री के गीतों में भी इस मूल भावना की झलक मिलती है। जहाँ दाम्पत्य-जीवन में विशुद्ध प्रेम है, गहन समर्पण है, तो एक टीस भी है। यह टीस पत्नी के लिए किसी शूल से कम नहीं होती। यह टीस, शिकायत है और यह शिकायत उसका अधिकार है-
किस मिट्टी के बने हुए हो
जगते हो न सोते हो।

हर दिन कटे मशीनों जैसा
साँझ सलोनी सपन हुई।
संवेदन बस अभिनय भर है
हँसते हो ना रोते हो। (किस मिट्टी के बने हुए हो, पृ. २८)

‘बूँद-बूँद गंगाजल’ की एक विशेषता यह भी है कि इसमें कुछ गीत भी हैं, जिनमें प्रवाह व विषय-वस्तु की नव्यता के साथ ही साथ गहराई और गम्भीरता भी है-
घर की सब चीजों पर
कालिख जमी पड़ी है।
चूल्हा नहीं जलेगा
हुआ सिलेंडर खाली। (पृ. ७६ व ७७)

खूब सभाएँ करो बैठ अब
चाभी वाला एक खिलौना
चलते-चलते, बंद हो गया।
निर्बल मौन साधने से क्या
उनका छलना मंद हो गया। (पृ. १२५)

इस संग्रह के गीतों को यदि विषय-वस्तु के आधार पर वर्गीकृत किया जाए, तो मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रेम-तत्व, सामाजिक सरोकार सम्बन्धी, दार्शनिकता से अभिप्रेरित तथा प्रेरणापरक। प्रेम-तत्व सृष्टि का मूल है। बिना प्रेम के जगत् अंधकारमय हो जायेगा। प्रेमशून्यता की स्थिति में सूरज का दमकना, चाँद का चमकना तथा तारों का टिमटिमाना व्यर्थ हो जायेगा। संग्रह में ऐसे कई गीत हैं, जहाँ चेतना का वेदना (संवेदना) से मेल होता है। परिणामस्वरूप ये गीत पाठक व श्रोता में हृदयस्थ हो सकने में सक्षम हो जाते हैं-
संघर्षों के बीच न जाने
कैसे यौवन काटा।
याद नहीं कितने हिस्सों में
मैंने खुद को बाँटा।

कोने-कोने दहक रहे हैं
बेगाने अंगार। (पृ. ८५)

इधर बुझा है दीप प्राण का
उधर जला क्या? तुम बतला दो। (पृ. ५९)

अधर तृषित अकुलाकर कहते
शुभ संयोग मिलन को छाँटो।
जीवन-पृष्ठ अधूरे तुम बिन
आकर इनको पूरा बाँचो। (पृ. ३२)

संग्रह के सामाजिक सरोकार सम्बन्धी गीत बहुत ही पैने हैं और भटकी हुई सभ्यता को दिशा प्रदान करते है। ये गीत वैश्वीकरण और बाज़ार के ताने-बाने में उलझे यांत्रिक मानव की कलई उधेड़ देते हैं-
दौड़-दौड़कर माथा टेका इक पत्थर के देवालय में।
दो बूढ़ी आँखें रख आये सूने-सूने वृद्धालय में। (पृ. ९६)

ये जागरण का जरिया केवल है यार वंडे।
स्वाधीनता दिवस है कई रूप में हैं झंडे।(पृ. १०९)

कुछ बिल्डिंग, कुछ पुल टूटे कितनों से अपने छूटे।
शहर बना पाषाण कोई। (पृ. ५६)

इन गीतों में दार्शनिकता की चर्चा पहले भी की है मैंने। यह दार्शनिकता अनुभव से उपजी दार्शनिकता है। प्रत्येक कवि में न्यूनाधिक दर्शन की मात्रा विद्यमान होती है। बिना दर्शन के समर्थ कवि हो पाना सम्भव नहीं है। कवयित्री भावना जी के गीतों में दर्शन का भी विशेष महत्व है। वास्तव में यह दृष्टि यह प्रदर्शित करती है कि रचनाकार भौतिक जीवन के साथ-साथ आत्मिक स्तर पर कितना चिन्तनशील और तार्किक है। इस संग्रह के गीतों में इसकी पुष्टि कई जगह होती है-
जलती है जब तक दीप जले
देहों में उसकी बाती है।
है ब्रह्म नियति अलि एक यही
जो आज बना मिटना है कल। (पृ. १०२)

माना मरण सत्य है फिर भी
पल-पल प्राण सहेजूँ तन में।
मोक्ष नहीं मिलता है उसको
कुंठित होकर जो मर जाए।। (पृ. १०४)

जहाँ तक प्रेरणापरक सन्दर्भों की बात है, तो इस दृष्टि से भी संग्रह विशेष महत्व रखता है। यहाँ पर यह भी स्पष्ट कर देना उचित ही होगा कि यह इस पर भी निर्भर करता है कि कौन किस प्रकार कितनी प्रेरणा ग्रहण कर पाता है। संग्रह में ऐसे कई सन्दर्भ हैं-
"दिन पराभव के सही
हारकर झुकना नहीं
एक चींटी प्रेरणा
थक कभी रुकना नहीं।"(पृ॰ ७८) और

भटकन में भी होती राहें
बाद तपन के शीतलता है।" (पृ. १०३)

उनके व्यक्तिगत अनुभवों से भी सीखा जा सकता है, जहाँ समस्या का समाधान भी है-
वटवृक्षों से दूर रही हूँ इसीलिए बढ़ पाई हूँ।
इक ढिबरी का प्रेम उजास सदा पाया
जीवन को पढ़ पाई हूँ। (पृ. ४२)

प्रयोग, भाषा, शिल्प तथा शैली की दृष्टि से भी इस संग्रह का अपना विशेष महत्व है। संग्रह में किये गये कई प्रयोग बहुत ही आकर्षक बन पड़े हैं, जिनमें नव्यता भी है और सटीक व्याख्याएँ भी। जैसे-
"लाभ-हानि के सूत्र विसर्जित
हासिल में दुख आया।" (पृ. १०८) या फिर

भोज-पत्री हृदय पर जो
लिख दिया, मंत्रित हुआ"

"रीतियों की वेदियों पर कर दिया खुद को हवन।"(पृ. ९८) और
"अ से ज्ञ तक में दूरी थी
अक्षर से हम साथ रहे।"(पृ. २६)

इस दृष्टि से ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। संग्रह की भाषा सामान्यतः जन-सामान्य की भाषा है। गीतों में भाषा का विशेष महत्व होता है। यह भाषा ही है, जो गीतों में लोच पैदा करती है, प्रवाह पैदा करती है। इन गीतों में खड़ी बोली एवं प्रांजल भाषा का ही प्रयोग किया गया है। यद्यपि कई जगह आंचलिक व देशज शब्दों का प्रयोग इन गीतों में अतिरिक्त चमक पैदा करता है। कवयित्री को यह भलीभाँति मालूम है कि विषयवस्तु व जनसामान्य की रोचकता के अनुरूप गीतों को किस प्रकार ढालना है, इस कला में वे दक्ष हैं। यदि शब्द-शक्ति की बात करें, तो गीतकार ने अपनी बात कहने के लिए अभिधा के साथ-साथ लक्षणा का भी प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पर उन्होंने व्यंजना का भी सहारा लिया है। काव्य-गुणों की दृष्टि से इन गीतों में में प्रसाद और माधुर्य गुणों का समावेश है।

समग्र रूप से ‘बूँद-बूँद गंगाजल’ एक उत्कृष्ट गीत-संग्रह है। ये गीत कठिन साधना से तपकर निकले हुए गीत हैं। कवयित्री स्वयं इसका रहस्य उद्घाटित करती हैं-
एक बूँद अमृत की ख़ातिर
मैंने ज़हर पिया हर क्षण। (पृ. २६)

संग्रह का शीर्षक ‘बूँद-बूँद गंगाजल’ इस संग्रह की सार्थकता को सिद्ध करता है। सरितारूपी इन गीतों की बूँद-बूँद (शब्द-शब्द) में गंगाजल-सी पावनता है, तभी तो आत्मविश्वास से ओत-प्रोत कवयित्री डॉ. भावना तिवारी उद्घोषित करती हैं-
मत कहना तुम प्राण नहीं है
मेरे गीत अजान नहीं हैं। (पृ. ११५)

गिर-गिर सँभला करती हूँ
नयी उड़ानें साथ लिए।
साथ निशा के जलती हूँ
नया सवेरा हाथ लिए। (पृ. १२६)

उनकी कलम से ऐसे और भी संग्रह सृजित होते रहेंगे और लेखनी साहित्याकाश में धूम मचाएगी, मुझे पूर्ण विश्वास है। एक उत्कृष्ट गीत-संग्रह के लिए डॉ. भावना तिवारी जी को कोटिक शुभकामनाएँ!
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गीत- नवगीत संग्रह - बूँद बूँद गंगाजल, रचनाकार- भावना तिवारी, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- रूपये २००/-, पृष्ठ-१२८ , समीक्षा- डॉ. शैलेश गुप्त ‘वीर’।

1 टिप्पणी:

  1. भावना तिवारी का यह गीत-संकलन अवश्य अच्छा बन पड़ा होगा. समीक्षा के लिए जो गीत उद्धृत हैं सुंदर हैं, भावना प्रवण हैं. समीक्षक महोदय ने बड़े ही कौशल से उन्हें अपनी समीक्षा में पिरोया है.

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