रविवार, 19 जुलाई 2015

जहाँ दरक कर गिरा समय भी - राघवेन्द्र तिवारी

‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ राघवेन्द्र तिवारी का नवगीत संग्रह है जिसमें उनकी विविधरंगी एक सौ चौदह रचनाएँ हैं । राघवेन्द्र तिवारी के पास अनुभव का विशाल खजाना है तो लोक जीवन की अनुभूतियाँ भी हैं। वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे कहने के लिए उनके पास टटके प्रतीक और मुहावरे हैं। पारिवारिक रिश्तों के बीच खट्टे मीठे अछूते अनुभव उनके नवगीतों में एक अलग किस्म की ताजगी का अहसास कराते हैं। छन्द पर उनकी पकड़ गजब की है यही कारण है कि वे गीत की लय कहीं टूटने नहीं देते हैं। वे इस तरह से गीत रचते हैं मानो बात कर रहे हों ।

गाँव के जीवन में बहुत सारी विविधताएँ होती हैं, वहाँ सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता है तमाम जगह ऐसे आँसू होते हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते। कर्ज का रोग इतना भयानक है कि वह गाँव के भरे पूरे परिवारों को निगल जाता है, शुरू में तो यह अच्छा लगता है पर जब यह किसी अजगर की तरह जब अपने षिकार को अच्छी तरह से जकड़ लेता है तो फिर उसे कोई बचा नहीं पाता। कर्ज की यह त्रासदी जीते जागते इंसान को तोड़ कर रख देती है- 
खेत से लौटी नहीं अम्मा  
कर्ज में दोहरी हुई दालान से  
पिता चिन्तित 
एक टूटी हुई औरत खोजते हैं । पृ०- १७

गाँव के जीवन में तो कठिनाइयाँ हैं ही लेकिन शहरों की अपनी अलग तरह की समस्याएँ हैं। यहाँ भीड़ तो है पर अपनापन गायब है। यह किसी भोपाल, इन्दौर, कानपुर, लखनऊ या दिल्ली की नहीं बल्कि कमोबेश सभी शहरों की समस्या है, सब अपने में खोये हुए हैं, लगता है हर गली में अविवेक पसरा हुआ है, समूचे मौसम में ही तपेदिक फैल गया है जिसे देखकर एक संवेदनशील व्यक्ति को लगता है वह कहाँ आ गया- 
शब्द बौने हैं  
झरोखे में कहीं भी  
मुड़ी मेहराबें  
हवा रुकती नहीं भी  
गैल में अविवेक  
मौसम में तपेदिक 
इस शहर में हम 
कहाँ से आ गये पृ०-२०

आपस के मखमली रिश्ते इतने बारीक होते हैं कि उनके धागे कहाँ कहाँ से निकलते हैं यह खोज पाना मुश्किल हो जाता है हाँ उन्हें महसूस किया जा सकता है। आपसी गिले शिकवे मन की ग्रंथियों को सुलझाते रहते हैं। ऐसे गीत अकेले में गुनगुनाने के लिए होते हैं-
अधिक तो देते नहीं कुछ  
कम कभी करते नहीं  
कौन से स्कूल में 
आखिर पढ़े हो  
तनिक भी डरते नहीं  
तुम वहाँ से थे जहाँ  
से शब्द होते थे शुरू  
दूब तुम थे, काँस तुम थे  
और थे खस, गोखुरू  
कौन से उपकार की  
खातिर खड़े हो 
बात से फिरते नहीं  [पृ०-२२]

घर में अम्मा का न होना कितना सूनापन भर देता है इसे तब जाना जा सकता है जब अम्मा चली जाती है। इस अभाव को केवल और केवल महसूस किया जा सकता है-
अम्मा बिन घर सूना-सूना  
ताका करता 
लुटी राज सत्ता को जैसे  
देख रहा हो  
सैनिक कोई महासमर में [ पृ०-२९]

जिसे देखो वही असन्तुष्ट दिखाई देता है, अपने परिवेश से, सामाजिक व्यवस्था से, राजनीति से, व्यवस्था से परन्तु अपने समय की व्यवस्थाओं से सन्तुष्ट न होकर कंधे उचकाते रहना और स्वयं कोई निदान न खोजकर औरों को गरियाते रहने से कुछ नहीं होने वाला है, यह यथार्थ है। भीड़ का हिस्सा न बनकर कुछ करना ही इसका एकमात्र निदान है-
इस तरह कंधे न उचकाओ 
हो सके तो भीड़ से हटकर  
नया करतब दिखाओ  [पृ०-४४]

हम यह जानते हैं कि क्या उचित है और क्या अनुचित है फिर भी हम साहस नहीं जुटा पाते हैं कि सच का साथ दे सकें, रचनाकार प्रकारान्तर से बदजमीजों का विरोध करने का साहस जुटाने की ही बात कह रहा है- 
कलफ जैसे धुल रहे हैं  
हम कमीजों के  
मानते आभार आये 
बदतमीजों के  [पृ०-४६]

एक खेतिहर के लिए खेती ही उसका सब कुछ है जब खेती उजड़ती है तो एक किसान टूट जाता है और केवल किसान ही नहीं टूटता है समूचा परिवार चिन्ता के भँवर में बह जाता है- 
चिन्तायें लिये 
खेत की  
कहाँ चली गई 
केतकी ?  [पृ०-५४]

गिरता हुआ जल का स्तर बेहद चिन्ता का विषय है। यहाँ जल के स्तर की चिन्ता के साथ ही जीवन में व्यापत चिन्ता की ओर भी संकेत किया गया है। राजधानियों के तालाब जब आपसी रंज में डूब जायें तो फिर मछलियों को चिन्ता तो होगी ही । तालाब हमारी जल संस्कृति के भी परिचायक रहे हैं ये केवल तालाब ही नहीं होते थे पूरी संस्कृति और सभ्यता के जीवन्त रूप भी होते थे। उनका विलुप्त हो जाना शुभ नहीं है- 
पूछती मछली  
बता दो पता पानी का 
रंज में डूबा हुआ तालाब है  
क्यों राजधानी का  [ पृ०-५५]

दिन रूपी चिड़िया भला बहेलिये के हाथ कहाँ लगती है, समय गतिशील है यह किसी के लिए रुकता नहीं है। इस दार्शनिक विचार को इतनी सहजता से व्यक्त करना रचनाकार के भाषा सामर्थ्य का परिचायक है-
बहेलिये ! 
कहाँ लिये तू  
अपना जाल  
दिन-चिड़िया  
उड़ चली  
ले अपनी लग्गियाँ सम्हाल   [पृ०-६७]

पहाड़ों पर हुई त्रासदी को भुलाने में सदियाँ लगेंगीं। लेकिन इस त्रासदी के केन्द्र में कहीं न कही मानव ही है, पहाड़ों से वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से पहाड़ खोखले हो गये, हमें इस ओर विचार करने की दिशा इस नवगीत से मिलती है-
पल भर में जल में 
समा गये 
वृक्ष रहित खोखले पहाड़  
अब करें क्या बूढ़े हाड़   [पृ०-९२]

घर परिवार में बड़े बुजुर्गो का यूँ तो सम्मान किया जाता है, उनका ध्यान भी रखा जाता है परन्तु बुजुर्गो के प्रति उपेक्षा भी कम नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि यह समस्या पहले नहीं थी, पहले भी उपेक्षा होती थी परन्तु अब कुछ अधिक होने लगी है। गाँवों में भी इस तरह की उपेक्षा बूढ़ों के प्रति देखने में आ जाती है । कई बार तो घर के बच्चों को भी उनके पास नहीं जाने दिया जाता है । तमाम बूढ़ी स्त्रियों को डायन तक बता दिया जाता है । रचनाकार ने इस त्रासदपूर्ण स्थिति का इतना जीवन्त चित्रण किया है कि शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले। भाषा का जैसा सहज और जीवन्त रूप इस नवगीत में है, वह रचनाकार को एक सिद्ध नवगीतकार के रूप में लाकर खड़ा कर देता है। नवगीत का एक एक शब्द बोलता हुआ प्रतीत होता है- 
बापू के चौथे की चिन्ता  
बेटा करता है  
अच्छा लगता बुड्ढा 
मर, घर खाली करता है 
खाँस-खखार सुना करती थी 
जब जब घर वाली 
ताने दे-दे कर परोसती थी  
वह हर थाली 
‘इनको आग तपाकर धोना’  

कहती महरी से 
चीजें स्वच्छ रहें घर में 
तब घर, घर लगता है 
छोटे बच्चों को आज्ञा थी 
उधर नहीं जाना 
इस बुड्ढे में बुरी आत्मा है 
घर ने माना 
तभी इस उमर तक जिन्दा है  
कब का मर जाता 
बिना मरे ही नर्क भोगता  
यह यम लगता है 
बाप मरे के अग्रिम धन के 
चक्कर में बेटा.....। [ पृ०- १ १०] 

गीत और नवगीत के अन्तर पर प्रायः चिन्तन, मनन और विमर्ष होता रहता है । नवगीत, गीत का ही अगला संस्करण है, गीत में जब अपने आस-पास होने वाली गतिविधियों को ऐसी भाषा और शैली में अभिव्यक्त किया जाय जिसमें ताजगी हो, नयापन हो, समसामयिक सन्दर्भ हों, वर्तमान मुहावरा हो, अपने साथ-साथ जन सामान्य की भी चिन्ता हो तो वही नवगीत है। कुल मिलाकर राघवेन्द्र तिवारी का यह नवगीत संग्रह समय सापेक्ष परिस्थितियों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। समाज की विविध परिस्थितियों, दुख-दर्द, आशा-निराशा, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और गिरते मूल्यों का ऐसा सजीव चिट्ठा है जो पाठक को झकझोरता है। लय में पिरोए गए ये शब्द युगों युगों तक अपने समय की कहानी कहते रहेंगे। 
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गीत- नवगीत संग्रह - जहाँ दरककर गिरा समय भी, रचनाकार- राघवेन्द्र तिवारी, प्रकाशक- पहले पहल प्रकाशन, २५-ए, प्रेस काम्प्लेक्स, भोपाल,  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- ११६, ISBN ७८.९३.९२२ १२.३६.९  समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।

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