रविवार, 7 जून 2015

साँझी साँझ- आनंद कुमार गौरव

सुरीले व महत्वपूर्ण गीतकवि आनंद कुमार ‘गौरव’ की सद्यः प्रकाशित पाँचवीं कृति ‘साँझी-साँझ’ (गीत-संग्रह) के गीतों से गुज़रते हुए गीत से नवगीत तक की विकास-यात्रा स्पष्ट दिखाई देती है। इस कृति के कुल ७९ गीतों में जहाँ एक ओर गीत के परंपरावादी स्वर की मिठास भरी अनुगूँज है वहीं दूसरी ओर वर्तमान के यथार्थ का खुरदुरा अहसास भी अपनी उपस्थिति मजबूती के साथ दर्ज़ कराता है। 

‘साँझी-साँझ’ (गीत-संग्रह) ऐसे विद्रूप समय में आया है जब ‘साँझा’ शब्द ही कहीं खो गया-सा लगता है। संयुक्त परिवारों की परंपरा अब दिखाई नहीं देती, मुहल्लेदारी और आपसदारी जैसे शब्द अर्थहीन-से हो गए हैं और रिश्तों-नातों का निभाव महज औपचारिक होकर रह गया है फलतः आँगन की मिट्टी से उगने वाले संस्कार, अपनत्व और साँझापन की खुशबू कहीं महसूस नहीं होती। इक्कीसवीं सदी के ऐसे तथाकथित विकास के दिवास्वप्न में जीने वाले आमआदमी की तरह ‘गौरव’ जी भी अपने मन की टीस गीत के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं-

‘पते पर नहीं जो पहुँची
उस चिट्ठी जैसा मन है
रिक्त अंजुली-सा मन है

आहत सब परिभाषाएँ
मुझमें सारी पीड़ाएँ
विवश मौन वाणी जैसी
दबी अनगिनत प्रतिभाएँ
आस का गगन निहारती
खो गई सदी-सा मन है’

एकल परिवार के दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ते जा रहे फैशन के दुष्चक्र में फँसकर नई पीढ़ी तो प्रभावित हो ही रही है, घर के भीतर बुजुर्ग पीढ़ी भी कम आहत नहीं है। बच्चे बड़े होकर जब रोज़गार की ख़ातिर अपनी-अपनी गृहस्थियों के साथ कहीं दूर जाकर बस जाते हैं तो आँगन, बालकनी और कमरों का सन्नाटा बुजुर्गों को बहुत सालता है। ऐसे हालातों में वे बिल्कुल अकेले पड़ जाते हैं, किसी से अपने मन की बात कहने तक को तरस जाते हैं। कोमल कविमन को हर पल जीने वाले ‘गौरव’जी के गीतों में यह संवेदना बड़े ही मार्मिक ढंग से उद्घाटित होती है, एक गीत देखिए-
‘खिड़की से चिपका है दिन
घर सन्नाटा बहता है
आँगन गुमसुम रहता है

श्वाँस-श्वाँस रीते सपने
मुझमें सब जीते अपने
आहट भी मौन हो गई
साँकल के बीते बजने
हूँ परंपरा बिछोह की
चटका दर्पण कहता है’

जैसे राह चलते किसी पथिक को तेज़ धूप की तपिश से बचने के लिए ठंडक भरी छाँव की तलाश होती है उसी तरह परिवार में, समाज में व्याप्त विद्रूपताओं से पल-पल आहत होने के स्थान पर वापस गाँव की ओर लौटने की सलाह देते हैं ‘गौरव’जी, क्योंकि यह सच भी है और उनका मानना भी कि गाँव की मिट्टी आज भी सांस्कृतिक-प्रदूषण के प्रकोप से मुक्त है, वहाँ के लोगों में आपसी मेल-मिलाप आज भी आत्मीयता की चाशनी में पगकर अपनी मिठास का अहसास कराता है और घर के भीतर रिश्तों-नातों में औपचारिकता का संक्रमण नहीं है, इन्हीं अनुभूतियों को पिरोकर वह मन को छू जाने वाली अभिव्यक्ति देते हैं एक गीत में-

‘वहाँ अभी भी रहती है
पीपल-नीमों वाली छाँव
आओ फिर लौट चलें गाँव’

भिन्न-भिन्न संदर्भों, मानसिकताओं और अनुभूतियों में गुंथे इस संग्रह के गीत अपनी इंद्रधनुषी ख़ुशबुओं से पाठक को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ‘गौरव’जी ने अपने गीतों में जहाँ एक ओर आमआदमी की पीड़ा को बड़ी ही शिद्दत के साथ महसूस करते हुए उकेरा है वहीं दूसरी ओर धुनी हुई रुई की तरह सुकोमल प्रेम को भी मिठास भरे शब्द दिए हैं। हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। पन्त, बच्चन, प्रसाद, नीरज आदि की लम्बी शृंखला है जिन्होंने अपने सृजन में प्रेम को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया। ‘गौरव’जी के प्रेमगीतों में भी वही परंपरागत स्वर अपनी चुम्बकीय शक्ति के साथ विद्यमान है जिससे पाठक प्रेमानुभूतियों के सागर में डूबकर खिंचा चला आता है। उनका एक हृदयस्पर्शी गीत-

‘आज प्रिय आलिंगन को यूँ, मृदुतम अनुबंधों के स्वर दो
निज आँसू अवसाद पीर सब, मेरे रोम-रोम में भर दो
युग संताप तुम्हारे हर लूँ, पलकें अधरों पर में धर लूँ
गगन दो मुझे यदि प्रसन्न हो, तो मैं सारी पीड़ा वर लूँ
मैं तुममें साधना सँवारूँ, प्रीत-ऋचाओं का निर्झर दो’

हिन्दी के अप्रतिम गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र ने कहा है-

‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख’

‘गौरव’जी के गीतों के संदर्भ में दादा भवानीप्रसाद मिश्र की उपर्युक्त पंक्तियाँ सौ फीसदी सटीक उतरती हैं, ‘गौरव’जी का व्यक्तित्व भी उनके गीतों की तरह कोमल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। तभी तो लखनऊ निवासी वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना ने कहा है- ‘रचनाकार श्री गौरव की उद्भावनाओं का फलक विशाल’ है। ‘साँझी-साँझ’ शीर्षक से यह गीत-संग्रह हिन्दी साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगा और सराहा जायेगा, ऐसी मेरी आशा भी है और विश्वास भी।
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समीक्ष्य संग्रह- साँझी साँझ, रचनाकार- आनंद कुमार 'गौरव', प्रकाशक- नमन प्रकाशन, 4233/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण-२०१५, मूल्य- २०० रूपये , पृष्ठ- १२८, परिचय- योगेन्द्र वर्मा व्योम।

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