सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

एक और अरण्यकाल- निर्मल शुक्ल

निर्मल शुक्ल के इधर के चौबीस गीतों का संग्रह है-  “एक और अरण्य काल”।  कवि ने इन गीतों को कथ्य के उनके मन्तव्यों के अनुरूप  ’प्रथा’,  ‘कथा’ और ‘व्यथा’ के तीन खण्डों में प्रस्तुत किया है।
पहले खण्ड  ’प्रथा‘ में चौदह गीत, दूसरे खण्ड  ’कथा’  में सात गीत और तीसरा खण्ड  ’व्यथा’  में केवल तीन गीत देकर कवि ने अपने संग्रह के कलेवर को एक व्यक्तित्व दिया है- लगभग भारतीय उपमहाद्वीप के जैसा। संग्रह का पहला ही और शीर्षक गीत ’बाँह रखकर कान पर सोया शहर‘ हमें अपनी जटिल भाव-संरचना से उलझाता है। ’रेत की भाषा नहीं समझी लहर‘ की मुखड़ा-पंक्ति ही आज के समय के संवादहीन होते व्यक्तित्व को बिम्बायित करती है। संवादहीनता की निष्कृति होती है ’बस प्रथाओं में रहो उलझे/यहाँ ऐसी प्रथा है‘ की नियति में ’पुतलियाँ कितना कहाँ/इंगित करेंगी....‘, की व्यथा का लेखा-जोखा लेती उँगलियों के उम्र भर घिसने की त्रासदी से अभिशप्त ’बाँह रखकर कान पर सोया शहर‘ में दूध से उजले धुले संबंध‘ भी तो वर्तमान परिदृश्य में अनर्गल हो गये हैं और ’रंग की संयोजना के‘ उद्धरण यानि जीवन के सतरंगी सम्मोहक आकर्षण भी टूट कर दुहरा गए हैं।
इस स्थिति से जूझने का प्रतीकांकन हुआ है इसके तुरन्त बाद के गीत ’आँधियाँ आने को हैं‘ में, यथास्थिति को अस्वीकार करता आक्रोश ’मस्तकों पर बल खिंचे है/मुठ्ठियों के तल भिंचे हैं‘, की मनोदशा से ’काठ होते स्वर/अचानक/खीझ कर कुछ बड़बड़ाये‘, के प्रतिरोध में परिणति तो पा लेता है, पर रंग भरती/यवनिका में/पटकथा अब भी अधूरी‘, की संचेतना उसे खीझ से अतिरिक्त कुछ नहीं बनने देती। ’बस गुजर है घर नहीं है‘, क्योंकि ’बेटियाँ हैं वर नहीं हैं/श्याम को नेकर नहीं है‘ की यथार्थ स्थिति को बदलना आसान नहीं है। ’उतर गए ऋतुओं के तार‘ शीर्षक गीत में यथास्थितियों को बदलने की इच्छा खीझ से कुछ आगे बढ़ती है। ’चिनगारी से शर्त लगी है‘ की मानसिकता में ’सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी/लेकिन चीख-पुकार नहीं है‘ की चेतना हालाँकि बनी रहती है, किंतु-
इतने पर भी/कानों में कुछ/दे जाती संवाद दिशायें
दूर कहीं इस/उठा पठक में/होंगी फिर अनुरक्त ऋचायें
स्थितियाँ अब चिकनी चुपड़ी/बातों को तैयार नहीं हैं

की एक नई अस्वीकार की मनःस्थिति बनती दिखाई देती है, जो सक्रिय होकर संभवतः एक क्रान्तिधर्मी भावभूमि बनायेगी। फिलवक्त का आकलन करते गीत अपने प्रतीक-कथन में काफी प्रभावी बन पड़े हैं, विकास का एक मापदण्ड साक्षर-शिक्षित होना माना जाता है। किंतु इसका तात्पर्य चतुर-कुटिल होना भी हो सकता है-
बहुत साक्षर हुई/हवायें/अर्थ सभी पहचानें
शतरंजी चालों में/कितने/गोरे-काले खाने
आज महकती पुरवाई के/केवल गीत पीर के
की वर्तमान विसंगति इसी से उपजी है।
’नदी‘ के प्रतीक बिम्ब के माध्यम से आज के संवदेनशून्य समय का बड़ा ही सटीक अंकन हुआ है निम्न पंक्तियों में-
नदी करे क्या/जिसने चाहा/अलगनियों पर टाँगा
टाँक लिया कसकर/चित्रों में/दाम गढ़ा मुँहमाँगा
आज मरे या जिये/नदी ने छोड़े बंधन तीर के
वर्तमान कालखण्ड का दूसरा त्रासक पहलू है ’किस्मतिया का/सोनल मुखड़ा/फिर भयभीत हुआ‘ का अभावों के बीच पनपते शोषण-तंत्र के मारक शिंकजे में-
नाम रूप धन कुल मरजादा
न कुछ हास हुलास
अन्नपूर्णा की किरपा बस
खाने भर की आस
की जो स्थिति आज बन पड़ी है उसमें ’बोल-बतकही/दाना-पानी/सारा तीत हुआ‘। अभावग्रस्त ग्रामीण समाज में अधिसंख्य की नियति तो यही है-
बिटिया भर का दो ठो लच्छा/उस पर साहूकार
सूद गिनाकर छीन ले गया/सारा साज सिंगार
मान-मनौव्वल/टोना-टूटका/सब विपरीत हुआ
इसी से जुड़ा है सम्पूर्णतः अनैतिक हुआ बाजार-तंत्र, जिसके तहत-
बड़ा गर्म बाजार लगे बस
औने-पौने दाम
निर्लज्जों की साँठ-गाँठ में
डूबा कुल का नाम
और
आहट, सगुनाहट सब कोरी
खाली गई जबान
के अपसांस्कृतिक, अनीतिकर परिवेश का सृजन हुआ है, जिसमें ’ड्योढ़ी-डयोढ़ी/द्वारे-द्वारे/रिसता रहा तनाव‘ और ’सिर विहीन हो गये/निचोड़े/धड़ से चिपके पाँव‘ जैसी स्थितियाँ ही उपज पाती हैं। बँटे हुए आपसी संबंध इस स्थिति को और त्रासक बना देते हैं-
गिनी-चुनी साँसों में भी तय
रिश्तों का बटवारा
जितना कुछ आकाश मिला, वह
सब खारा का खारा
समस्या एक और भी है, जीवन की भोली संज्ञायें उनकी सहज भावाभिव्यक्ति आज के माहौल में अपनी अर्थवत्ता, अपना मूल्य खोती जा रही है, क्योंकि -
तुतलाते अक्षर ध्वनियों में
अर्थ कौन पहचाने
शब्द सयाने हुत मिले पर
सब के सब अनजाने
’ऊँचे मुँह बातें बचकानी‘ की जो ’इतनी एक कहानी‘ है उसमें ’गुड़िया के घर/गूँगी नानी‘ के ’किस्से हुए सवाल‘। हमारा आज का शहरी माहौल इतना विकृत, इतना नकली हो चुका है कि उसमे-
हर तरफ शीशे चढ़े हैं
साँस तक जाती नहीं है
धुंध है बारूद की
जो घाव सहलाती नहीं है
और ’कहकते भरते शहर की/शक्ल सूरज मातमी है‘ वाले इस तथाकथित सभ्य समाज में ’खून से लथपथ/मिली/हर मुस्कराती दास्तान‘, और ’जिन्दगी वैसी ही है‘ की वही वही स्थितियाँ बार-बार आती हैं।
’कथा‘ खण्ड के सात गीतों में बन्द लिफाफा बनी जिंदगी के साथ
गूढ़ प्रश्नों का क्षितिज के/आवरण पर
हल लिए पगडण्डियों के/नीड़ के भी
’सकल/जीवन समेटे रस सने...‘, ’मोतियों की बस्तियाँ हैं ये सजल‘ की उद्भावना भी हुई है। गीत ’अमलतास भी काँटे भी‘ इस खण्ड को एक नया आयाम देता है। इस गीत में जीवन को समग्र रूप में स्वीकारने की आस्तिक अभीप्सा अपने पूरे आकर्षण के साथ उपस्थित हुई है। मेरी राय में, इस गीत को, भाई निर्मल शुक्ल के इस संग्रह की उपलब्धि-रचना यदि कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी, बानगी के तौर पर कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
हम मंजरियों की सुवास तो/बचपन के गुब्बारे भी
बादल की चादर से ऊँचे/स्वर भरते नक्कारे भी
संगीनों की रक्त गंध तो/मेंहदी-रची हथेली भी
इसी आस्तिक भाव को एक सात्विक संकल्प का रूप देता है इस खण्ड का अंतिम गीत-
मैं गगन में भी/धरा का/घर बसाना चाहता हूँ
लो दिशाओं में/सुधी पुरवाइयों की गंध आई
ओस में भीगी/शिरायें थरथराई, कसमसाई
इंद्रधनु के रंग पीकर/भानुकुल का अंग छूकर
भोर की मनहर/रंगोली को/बिछाना चाहता हूँ
इस गीत की अंतिम पंक्ति ’मैं सकल/संवेदना का/ऋण चुकाना चाहता हूँ‘ कवि-कर्म को एक आस्था परक अभिव्यक्ति देती है। जीवन के सम्पूर्ण राग एवं रोमांस की अभिव्यक्ति इस गीत में हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
’व्यथा‘ खण्ड का दूसरा गीत उपर्युक्त दोनों गीतों की आस्तिकता का ही विस्तार है। एक स्व-उद्बोधन के माध्यम से कवि निर्मल ने मानुषी अस्मिता को एक सकारात्मक स्वर दिया है-
पक्षियों के नीड़/फिर बसने लगे कुछ यों बने
फिर शहर की/बियाबानी शाम कलरव से सने
चेतना के नवल/अनुसंधान जोड़ो/हो सके तो
उन सात्विक संभावनाओं को इस गीत में वाणी मिली है, जिनसे ही हम आज के ’भटक गया है चौराहे पर/प्राण वायु का राग‘ की पुनर्प्राप्ति कर सकते हैं। इस प्राण वायु के राग से ही ’कंकरीट हो गई व्यवस्था‘ के अन्तर्गत ’विकृतियों की भेंट चढ़ गया/पावन गंगाजल‘ के शुद्धीकरण का अनुष्ठान संभव हो पायेगा। पूरे मानुषी पर्यावरण की पुनर्रचना के सात्विक संकल्प को स्वर देता यह गीत, सच में संग्रह के सोच को आदिम मानवीय मूल्यों से जोड़ता है।
समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है। इस विशिष्टता के लिए मेरा उन्हें बारम्बार साधुवाद।
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पुस्तक- एक और अरण्यकाल, रचनाकार- निर्मल शुक्ल, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण-२००६, मूल्य-रू. १५०/-, पृष्ठ-७२, , समीक्षा लेखक- कुमार रवीन्द्र

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