शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

झूठ नहीं बोलेगा दर्पण -विनय भदौरिया

डॉ. विनय भदौरिया के नवगीत का वर्ण्य सामाजिक परिवर्तनों को पहचानना है और उस वर्ण्य को अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत करना है। उनके यह दोनों ही कार्य इतनी सहजता से होते चले जाते हैं कि उसमें अस्वाभाविकता कहीं नहीं दिखाई पड़ती। सब कुछ बड़ी सहज-सरल शैली में घटित होता होता जाता है। उनके नवगीत में बराबर एक वार्तालाप की नाटकीयता सक्रिय रहती है।
सामाजिक परिवर्तन की दुहाई प्रत्येक काल के कवियों का एक नारा रहा है लेकिन उसको चित्रित करने में कवियों ने जितना आग्रह वक्तव्य और गद्य को दिया उतनी स्पष्ट पहिचान उनकी रचनाओं में न हो सकी। इसी परिवर्तन को डॉ. विनय भदौरिया ने भी पकड़ा और उसे बिना किसी वक्तव्य के उन्होंने अपने अप्रस्तुतों के माध्यम से रेखांकित कर दिया। सुनने वाले को वह अप्रस्तुत किसी बिम्ब के माध्यम से अर्थ विवक्षा की कोटि में पहुँचा देता है। नवगीत सामयिक मूल्यों के अंकन का श्रेय लेकर श्रोता को स्वीकार में गरदन हिलाने को विवश करता है और अप्रस्तुतों में जो छिपी आक्रोश की भावना है, उनकी प्रस्तुति पर श्रोता विडम्बना की हँसी हँसकर गीतकार को साधुवाद देता है-

अन्तस में प्रेत मन्त्र
ओठों पर गीता है,
जी रहे मुखौटे हैं
आदमी न जीता है।

दर्द में इजाफ़ा तो
कर दिया हकीमों ने,
वैसे तो चोट बहुत
हल्की थी मोच में।

और यह चोट खाया मनुष्य है कौन? कैसा है? उसके ऊपर का मुखौटा उसे क्या कहता है-

हर तरफ चल पड़े प्रश्न के काफ़िले
पर जवाबों के हैं मुल्तवी सिलसिले,
हर अहं चूमने लग गया है गगन
स्वार्थ के फूल ही अब दिलों में खिले।

इस तरह से हुए खोखले आचरण
व्यक्ति ही जी रहा आज संत्रास में।

सभी अप्रस्तुत उस भूमि से लिए गए हैं, जो भारत की पहचान कराती है उस भारत की जो प्रकृति वैभव का सांस्कृतिक परिवेश का भारत है और उन प्राचीन प्रचलित संज्ञाओं को नए जमाने की अभिव्यक्ति का आधार बनाया गया है। इन संज्ञाओं से अप्रस्तुत के माध्यम से समाज के नाना प्रकार के बदले सम्बन्धों की अभिव्यक्ति की गई है। और कहीं-कहीं प्रकृति को ही बदल दिया गया है। ये अप्रस्तुत एक साथ निम्न रूप में उभरते हैं और प्रतीकात्मकता का परिवेश प्रकट करते हैं। परिवर्तन और अप्रस्तुत की कितनी अनहोनी घटित हो रही है-

साँपों के आगे पड़कर
अब नेउला पूँछ हिलाए,
शेर देखते ही सियार को
फौरन हाथ मिलाए।

अब तो निकल रहा है भइया
बालू में से तेल।

और परिवर्तन के इस मेले में शामिल नए पुराने लोग-
दिनभर की घुटन
शाम
मुक्त कहकहे
ऐसी दिनचर्या में
नित्य हम रहें।

डॉ. विनय ने बिल्कुल नए परिवेश को अपना काव्य वर्ण्य चुना है। राजनीति में चुनाव, आरक्षण, ग्राम्य विकास की विविध योजनाएँ, सरकारी धन का आहरण घूस, उत्कोच, सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की बदहाली, योजना आयोग राजपुरूषों के वादे और दावे, इन सभी के बीच में उपेक्षित होते आदर्श, मिटती संस्कृति, मूल्यों की अवमानना का ऐसा ताना-बाना इनकी कविताओं में बुना गया है कि कविता से सामाजिक संदर्भो का सीधा साक्षात्कार और साधारणीकरण हो जाता है। बात भले ही अप्रस्तुतों में कही जा रही हो लेकिन प्रस्तुत का अर्थबोध और विषयबोध करा देती है। पारिवारिक विघटन की एक छवि-
बँटे खेत
दालान, वरोठे,
टुकड़े-टुकड़े आँगन
किंतु अभी भी।
गड़े आँख में
बूढ़ें बापू की पेंशन।

अब तो मृतक आश्रित में नौकरी पाने के लोभी बापू की पेंशन की प्रतीक्षा नहीं करते। जो पेंशनधारक पारिवारिक बँटवारे में जिस लड़के या लड़की के साथ रहते हैं शेष के श्राप ग्रस्त हैं और कब किस बहाने मौत उनके पास आएगी इसका उन्हें पता नही। समाज की बदलती सामाजिक व्यवस्था उसके साथ परिवार, समाज, सार्वजनिक संस्थान सब में बस एक ही चीख पुकार है। हाय पैसा! हाय पैसा!! डॉ. विनय की कविता से न राजनीतिकी विद्रूपताएँ छिप सकीं और न राजपुरूष के चरित्र के दास्ताने। राजनीतिज्ञों का अपराधी जीवन, दलों का दल-बदल, मंचों के सम्भाषण, गाड़ियों के काफ़िले, इन समाज सेवकों और लोक-नायकों के कर्म सभी का लेखा-जोखा है। ग्राम्य विकास योजनाएँ सरकारी धन का बँटवारा कर रही हैं, नई पीढ़ी डिग्रियों के लिए क्या-क्या हत्थकण्डे अपना रही है, नौकरियाँ कैसे मिल रही हैं, फिर पाई नौकरियों में कैसे कार्य संचालन हो रहा है? अर्थात् समाज का कोई कोना उनकी भावुक आँख से छूटा नहीं है। डॉ. विनय परिवर्तित भारत की सामाजिक दशा के शब्द चित्रकार हैं। अभी कुछ आक्रोश इस दशा को देखकर कहीं-कहीं उग्रता का रूप धारण कर लेता है लेकिन वह भावना निवेशी तात्कालिता है, जो आगे चलकर शान्त हो जाएगी। डॉ. विनय ने जो भी वर्ण्य विषय अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत किया वह उनकी भाषा को एक नई आकृति देता है। भाषा में कहीं कोई उलझाव नहीं है और वह जो कुछ भी कहना चाहते हैं, उसको अपनी सामान्य शब्दावली में श्रोता तक पहुँचा देते हैं। युग की जटिल परिस्थितियों में भाषा की अपर्याप्तता का संकट कवि वर्ग को सदैव से हो रहा है लेकिन डॉ. विनय ने इस संकट को सहज ही पार कर लिया है। वह अनुभूति की जटिलता को विस्तार में न ले जाकर उसे और सीमित कर देते हैं तथा उसको प्रकट करने के लिए वे समास शैली का आश्रय लेकर कहावत और मुहावरों के व्यावहारिक प्रयोग से अपना कविकर्म सिद्ध करते हैं।

टका सेर में बिकती भाजी
टका सेर में खाजा,
यदि अँधेर बचाना है तो
बदलो चौपट राजा।

जिसकी बाँहों में पलते हैं
उसे बखूबी डसते हैं,
बहुत बार आजमा लिया
अब न भरोसे लायक है।

सामाजिक दुर्दशा, लोकतन्त्र की बेमानी, अँधेर नगरी चौपट राजा का हरिश्चंद्र? ड्रामा, आस्तीन के साँप, दगा, छल, धोका देकर राजनीति में अपना ठाठ जमाए इन चरित्रों को सामान्यतया अभिव्यक्त दिया और निष्कर्ष रूप में कह दिया कि ’अब न भरोसे लायक हैं‘। पूरा काव्य संकलन इसी प्रकार की भाषा की मुहावरेदानी से भरापूरा है। डॉ. विनय को सामाजिक परम्परा से वैसवारा क्षेत्र का संयुक्त परिवार संयुक्त समाज की पूँजी, आदर्शों और नैतिकता की गठरी उत्तराधिकार में मिली। डॉ. विनय को अपने व्यवसाय वकालत में तरह-तरह के मुकदमों के माध्यम से भारतीय ग्राम्य जीवन और नगरीय जीवन में भारत की विकास योजनाओं के धन का अपहरण और राजनैतिक अपराध जगत् को अपने मुवक्किलों के माध्यम से पढ़ने जानने का अवसर मिला और डॉ. विनय को मिला हिन्दी जगत् के मूर्धन्य गीतकार डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया का पितृ-आशीष। यह तीन क्षेत्रों की तीन परम्पराओं की पूँजी उनके कवि कर्म के लिए उनके पास है। इस पूँजी से उन्होंने जो नवगीत सृजन का आधारभूत ढाँचा रचा उसमें वह मानवीय आदर्श को हारिल की लकड़ी की तरह पकड़े हैं- सत्यम् शिवम्, सुन्दरम का ही मन्त्र जपते हैं-

सदा सत्य का ही चिन्तन हो
शिव ही हो सुन्दर भावों में,
जिस पथ चलूँ प्रेम का मग हो
मरहम भरा करूँ घावों में।

पिंजरों से छुटकारा पाऊँ
ज्ञान भक्ति-युत,
बुद्धि प्रखर दे।


अपने कवि कर्म में और व्यावहारिक जीवन में लोक-कल्याण, रूढ़ बंधनों से छुटकारा और करूणा से द्रवित हृदय जिसमें शिवत्व का वास हो, सत्य का कथन हो और अभिव्यक्त ही सुन्दरता का निवास हो यही कवि की अपनी कामना है और उसी को पाने, सहेजने, सँवारने की आवश्यकता है।

डॉ. विनय के नवगीत आधुनिक युग के बदलते नारी चरित्र पर दृष्टि पात नहीं कर सके। इस संकलन में उनका एक गीत जिसमें उपमानों को इसलिए नकारा गया है कि नायिका जिन काल्पनिक सौन्दर्य से अधिक प्रभावशाली यथार्थ और वास्तविकता का सच है। जो नायिका के मुख को गोलचन्द्रमा से उपमित करने के स्थान पर गोल रोटी की आस्था से अधिक जुड़ा है। कहीं न कहीं इस कविता में अज्ञेय की कविता ’ये उपमान मैले हो गए हैं‘ का अति आधुनिक परिवेश अंकित करने का भाव है। अपने प्राचीन संस्कार, भारतीय जीवन की पुरातन संस्कृति, संयुक्त परिवारों की श्रद्धाभक्ति मण्डित सामाजिक दशा, न्याय नीति, धर्म कर्म पर आधारित ’पुरवा जो डोल गई थी‘ अब उस पर पछुवा का बादल चढ़कर अपना प्रभाव समाज के हर क्षेत्र में दिखाना चाहता है और डॉ. विनय पुरवा को ही अंगीकृत किए है। पछुआ की संस्कृति से चोटिल शरीर पुरवा की बयार से पीड़ा पहुँचाता है। लेकिन डॉ. विनय पछुवा से चोटिल नहीं होना चाहते। उनका नव संकलन सहृदय हो, वे नवगीतकारों में गीत शिरोमणि होकर उभरें, उनकी कविता से मंगलगान की तरंगें फूटे, इन्हीं कल्पनाओं, कामनाओं से उन्हें अशीषता हूँ।
-----------------------------------------------------------------------------------
नवगीत संग्रह- झूठ नहीं बोलेगा दर्पण, रचनाकार- डॉ. विनय भदौरिया, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, ई-२८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-२००८, मूल्य-रू. २००/-, पृष्ठ-१७२, समीक्षा लेखक- डॉ. ओमप्रकाश अवस्थी, ISBN ८१-८९१३३-९२-६

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

क्या आपने यह पुस्तक पढ़ी है? यदि हाँ तो उसके विषय में यहाँ टिप्पणी करें। उपरोक्त समीक्षा पर भी आपके विचारों का स्वागत है।